Saturday, 13 August 2016

देख तेरी 'जन्नत' बुरहान !

देख तेरी 'जन्नत' बुरहान !


तडपता बलुच, खौफ का राज


मरते बच्चे, कटती मासुमीयत

हम चांद पर कदम रख चुके कबका...


तेरा प्यारा 'पाक' कदम बढाना कब का भूला है !

'उपर' पुंछना 'जिन्ना' को,


की और कितना 'पाक' मुल्क चाहिये था उन्हें ?

पछताना तो तुम्हे अल्लाह सिखायेगा, जनाब !

क्योंकी दारूल-इस्लाम के 'पाक' जमीं पर

महंगी है सादगी, महंगा है अमन,


लेकीन उस के बंदोंकी की जानें,

'चांद-तारे' के नीचेही सबसे सस्ती है !!