देख तेरी 'जन्नत' बुरहान !
तडपता बलुच, खौफ का राज
मरते बच्चे, कटती मासुमीयत
हम चांद पर कदम रख चुके कबका...
तेरा प्यारा 'पाक' कदम बढाना कब का भूला है !
'उपर' पुंछना 'जिन्ना' को,
की और कितना 'पाक' मुल्क चाहिये था उन्हें ?
पछताना तो तुम्हे अल्लाह सिखायेगा, जनाब !
क्योंकी दारूल-इस्लाम के 'पाक' जमीं पर
महंगी है सादगी, महंगा है अमन,
लेकीन उस के बंदोंकी की जानें,
'चांद-तारे' के नीचेही सबसे सस्ती है !!